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हिन्दू सेवा संगठन

सनातन शक्ति पात्र

मानव कल्याणार्थ आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सामूहिक प्रयत्नों के द्धारा सभी उद्देश्यों के लिए सहमति, समान इच्छा,प्रेम, सद्भावना, एकरुपता, सनातन धर्म प्रचार -प्रसार और आपसी सम्बन्धों की घनिष्ठता को आत्मसात कर सहयोग के द्धारा मानव विकास एवं उन्नति करना चाहती है। सहयोग प्राणी की जन्मजात आवश्यकता है। उसका अस्तित्व, विकास एवं सहयोग पर निर्भर करता है इससे उसकी आवश्यकताओं तथा उद्देश्यों की पूर्ति होती है। आपकी सहयोगात्मक भूमिका से सामाजिक गुण विकसित होंगे और सामाजिक एवं धार्मिक सम्बन्धों का विकास होगा। सनातन संस्कृति को संजोए रखने के लिए आप सभी सनातनियों का सहयोग अपेक्षित है, हमारी संकल्पना सम्यक विश्व व मानव जाति के लिए - सहयोग, समर्पण, सनातन संस्कृति प्रचार -प्रसार, शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, वृद्धाश्रम, शिशु पालन आश्रय, पर्यावरण, नशामुक्ति, अंधविश्वास, रक्तदान, अंगदान, देहदान, नेत्रदान, कन्यादान, दहेज कुप्रथा मुक्ति, शुद्ध शाकाहार, खाध्य पदार्थो में मिलावट की रोकथाम, न्यायिक व्यवस्था, जैविक खेती के प्रति जनजागरण, आयुर्वेद एवं जड़ी -बूटियों का उपयोग, पालतू पशुओं व वन्य जीवियों का संरक्षण, तम्बाकू सेवन के प्रति जागरूकता एवं असहाय लोगों की सहायता के लिए सामूहिक प्रयत्नों के द्धारा संगठित होकर सहयोग करना चाहती है। न्यास सभी सनातनी धर्मावलम्बीयों से आग्रह करती है कि आप भी तन -मन -धन से सहयोगात्मक भूमिका निभाएं। 

वैदिक सनातन धर्म में वेदों का बहुत महत्व है जो वसुधैव कुटुंबकम् की विचारधारा को चरितार्थ करती आई है।

ऋग्वेद

ऋषि -मुनि सभी मनुष्यों को यही प्रेरणा देते थे कि जैसे वे अपने लिए उत्तम पदार्थो की कामना करते हैं, उसी प्रकार उन्हें दूसरों के लिए भी उत्तम पदार्थो की कामना करनी चाहिए। वैदिक ऋषियों ने मनुष्यों को यही संदेश दिया कि उन्हें अग्नि के समान उत्तम आचरण करने वाला होना चाहिए, और अ-विधा से निवृत्त होकर यश प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति समाज के हित के लिए सदैव कर्म करते हैं और समाज को सुखी- समृद्ध बनाते हैं वे सूर्य की किरणों के सदृश यश के भागी होते हैं।

यजुर्वेद

बुद्धिमान व्यक्तियों को सदैव परमेश्वर और धर्म युक्त पुरुषार्थ के आश्रय से वेदों को पढ़कर और उसके गुणों को समझकर सभी पदार्थो के प्रयोग से पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए अत्यंत उत्तम कर्मों को करना चाहिए ताकि परमेश्वर की कृपा से सभी मनुष्यों को सुख और ऐश्वर्य प्राप्त हो।सब लोगों को चाहिए कि वे अपने सत्कर्मों द्धारा मानव - जाति की रक्षा करें और उत्तम गुणों के लिए अपने पुत्रों की शिक्षा का प्रबंध करें, ताकि सभी प्रकार के रोगों और प्रबल विघ्न -बाधाओं से मानव -जीवन तथा आने वाली पीढ़ियों की रक्षा हो सके! सुख -समृद्धि प्राप्त की जा सके। हे सनातनियों ! आओ, हम सब मिलकर उस परमपिता परमात्मा को धन्यवाद दें, उसकी उपासना करें जिसने हमारे लिए आश्चर्यजनक पदार्थो की रचना की है। वह ईश्वर परम दयालु है। वह अपनी कृपा से श्रेष्ठ कर्मों को करते हुए हमारी सदैव रक्षा करता है।

सामवेद

सामवेद मधुर रस का भण्डार है। वेदों में ' ॐ ' का महत्व सर्वोपरि है। यह मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। ' ॐ ' के उच्चारण करने से मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। शुद्ध उच्चारण मन की संगीतमयी संगति जब हो जाती है, तब परमात्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति होने लगती है उपासक के हृदय में प्रसन्नता के अनन्त भाव भर देते हैं। गायन के विविध ढगों का प्रमाण इस तथ्य से प्रकट होता है कि कण -कण में संगीत के स्वर विधमान है। हवा के सांय -सांय में, पत्तों की खड़खड़ाहट में, झरनों के बहने में, ओंसकणों के ढुलकने में, सागर की उछलती लहरों में, बादलों के घुमड़ने में, पक्षियों की कुहूक में, गायों के रंभाने में, चिड़ियों की चहचहाट में, बिजली की कड़क में, हिमशिखरों पर पिघलती बर्फ में, नदियों के वेग में, सभी में संगीत के स्वर - लहरियां विखरी हुई है। संगीत के सात स्वरों की पहचान भी इस प्रकृति के मध्य से ही पहचानी गई होगी, संगीत की स्वरलहरियों में वंशी की मधुर तान है, तो कल -कल करती नदियों की जल तरंग है ! यह ऐसी सार्वभौम स्वर रचना है, जो अपने स्वरों में प्रस्फुटित होती है। इन स्वरों के उदात्त स्वर ही सामवेद के मंत्रों में अभिव्यक्त होते हैं, सामवेद का संगीत जीवन और प्रकृति से जुड़ा हुआ है।

अथर्ववेद

अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, अध्यात्म ज्ञान अर्थात धर्म सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण उपदेशों का उल्लेख किया गया है। साधना और चिंतन के द्धारा अनेक ईश्वरीय शक्तियों को खोजा जाता है। आत्मदर्शन से स्थितप्रज्ञ, की स्थिति पायी गई है। यह स्थिति अथर्ववेद के अधिक निकट है क्योंकि अथर्व का अर्थ ही अचंचलता की स्थिति है। स्थिति प्रज्ञ भी वही है, जिसने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया हो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी प्रकार की चंचलता पर नियंत्रण करने वाले व्यक्ति को ' स्थितिप्रज्ञ ' कहा जाता है। जितना हमारे शरीर का महत्व है उससे भी अधिक महत्व हमारे शरीर में जीवन शक्ति के रूप में विद्यमान ' आत्मा ' का है। सम्पूर्ण जगत में व्याप्त ईश्वर की परम सत्ता का ज्ञान अथर्ववेद की गुह्य अध्यात्म -विधा के द्धारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसे साधना द्धारा कोई भी प्राप्त कर सकता है। योग -विधा के अनुसार इस मानव शरीर में मूलाधार आदि 8 चक्र है और इन्द्रियों के रूप में 9 इन्द्रियां है, इस नगरी के केंद्र हृदय में , प्रकाशमान स्वर्ग स्थित है यही यम, नियम, प्रत्याहार, प्राणायाम आदि द्धारा ईश्वर को पाया जा सकता है। शरीर में स्थित षष्टचक्रों का भेदन करके ' कुण्डलिनी ' शक्ति को जगाया जाता है और उसे ब्रह्मरन्ध्र में उपस्थित परमात्मा के पास ले जाया जाता है ! परन्तु यह कोई आसान कार्य नहीं है। इसके लिए कठोर और नियमित साधना की आवश्यकता होती है प्राण - विधा की साधना ही योग साधना का लक्ष्य है। सार तत्व यही है कि हम सदा मृत्यु के भय से मुक्त होते हुए स्वयं को अमर मानें। दीन - हीन भावों से दूर रहें। सत्यनिष्ठा से अपनी आत्मशक्ति को पहचानें। अपनी समस्त इन्द्रियों को नियंत्रण में रखें। सदैव उदात्त विचारों का निर्वहन करें, सदा सच्चिदानन्द स्वरूप का ध्यान करके आनन्दमय तथा शान्ति पूर्ण जीवन बिताएं। इस मानव - शरीर का शुद्ध और पवित्र रुप से प्रयोग करें। प्राणीमात्र के प्रति प्रेम, स्नेह, संवेदना और सद्भाव रखें। उत्तम सत्संगति प्राप्त करें, अपनी शक्तियों का सदुपयोग करें। परमपिता की महान् शक्ति के सम्मुख अंहकार रहित नम्र भावना को प्रकट करें। हिन्दू संस्कृति की रक्षा करना सभी जनमानस का परम कर्तव्य है, अपने कर्तव्यों से कभी भी विमुख न हो यही भगवान श्रीकृष्ण जी ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को उपदेश दिया था।

हिन्दू सेवा संगठन की सर्विस शुरुआत में केवल दिल्ली के सनातनी सदस्यों के लिए है, यह सेवा का लाभ केवल संस्था के सदस्यों के लिए है। आप संस्था के माध्यम से अपने लिए निम्नलिखित कार्यों की सेवा ले सकते हैं।       

   1- पंडित

    2- फोटोग्राफर

    3-कोरियोग्राफर         

    4- इवेंट मैनेजमेंट         

    5- ब्यूटीशियन आर्टिस्ट       

    6- मेहंदी आर्टिस्ट         

    7- वेंकट हाल         

    8- कैटर्स एवं स्टाॅल         

    9- बैंड-बाजा, घोड़ी, लाईट, डीजे , बगी       

  10- ट्यूशन होम ट्यूशन           

   11- इलेक्ट्रिशियन       

   12- इलेक्ट्रिक अपलाईंस शाॅप     

   13- मेड सर्विस       

   14- कारपेंटर         

   15- प्लंबर       

   16- ज्वैलरी शॉप       

   17- योग एवं ध्यान चक्र ( मेडिटेशन )       

    18- ऑलइन - वन - सेवा सर्विस                

     19- टूर एंड ट्रेवल्स       

     20- जन औषधि ( कैमिस्ट )       

   अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें।   

   E-mail - vedant.satya.sanatan@gmail.com

  सदस्यता लेने के लाभ 

वेदांत सत्य सनातन संस्कृति न्यास की सदस्यता लेने के लाभ -  वेदांत परिवार की सदस्यता लेने के बाद आप इस परिवार का अभिन्न सदस्य बन जाते हो। आपकी समस्या वेदांत परिवार की सामूहिक समस्या हो जाती है। आप भी इस संस्था से जुड़कर मानव कल्याण के लिए सहयोग करें , एवं अपनी समस्याओं से भी मुक्ति पाएं। सनातन संस्कृति को सुदृढ़, सशक्त ,समृद्ध और शक्तिशाली बनाने में सामिल हों ।

  1- सनातन धर्मावलंबी ! पुरुष या महिला जो भी इस वेदांत परिवार की सदस्यता प्राप्त करता है और सनातन संस्कृति का प्रचार -प्रसार करता है, या तन -मन -धन किसी भी प्रकार से वेदांत परिवार को सहयोग करता है तो वह सदस्य भी जरुरत पड़ने पर इस परिवार से सहायोग लेने का अधिकारी बन जाता है, और वेदांत परिवार उसकी हर प्रकार से सहायता करने के लिए तैयार रहेगा।

  2-  भारत वर्ष में गरीबी, लाचारी, बिमारी, भुखमरी, अशिक्षा, असहाय, बृद्ध एवं बच्चे तरह -तरह की परेशानियों से जूझते रहते हैं। कई बार तो मजबूरी के कारण अपना जीवन तक गंवा बैठते हैं। पूरी सृष्टि में सभी जीव - जन्तु , पशु -पक्षी हर प्रकार का प्राणी एवं मनुष्य अपने जीवन यापन के लिए संघर्षरत है। पश-पक्षियों में भी एक गुण पाया जाता है, कि वह भी एक -दूसरे को जरुरत पड़ने पर सहयोग के लिए खड़े हो जाते हैं और दूसरों को मदद पहूंचाते है। मानव जाति तो वैसे भी बुद्धिमत्ता में अग्रणी है तो फिर क्यों न ? हम भी जरुरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद करें। आइए हम भी मिलकर वेदांत परिवार के माध्यम से इस मंच के द्धारा जरुरतमंद लोगों की सहायता करें।

  3-  मनुष्य का समय जब खराब होता है तो उसे कई प्रकार की समस्याओं से जूझना पड़ता है ऐसे समय में उसके साथ अगर कोई भी व्यक्ति खड़ा हो जाए तो उसकी समस्या कम हो सकती है।

  4- आपकी समस्या क्या है ?

* क्या ? आपकी आर्थिक स्थिति खराब चल रही है।

* क्या ? आप अपने बच्चों को शिक्षा देने में असमर्थ हो रहें हैं।

* क्या ? आपके बच्चे को किसी मजबूरी के कारण स्कूल छोड़ना पड़ रहा है।

* क्या ? आपके घर में कोई गम्भीर समस्या है जिसके कारण आप बहुत परेशान हैं।

* क्या ? आपको कोई बाहरी व्यक्ति परेशान कर रहा है।

* क्या ? आप घर की बहु हैं और आपको दहेज या किसी अन्य कारण से परेशान किया जा रहा है।

* क्या ? आप घर के वरिष्ठ नागरिक हैं और आपको अपने बच्चों के द्धारा परेशान किया जा रहा है।

* क्या ? आप घर मे बच्चे हैं और आपको को घर वालों के द्धारा प्रताड़ित किया जा रहा है।

* क्या ? आपको किसी अन्य समुदाय से परेशान किया जा रहा है।

* क्या ? आप अंधविश्वास के चक्कर में आकर परेशान हैं।

* क्या ? आपको कोई व्यक्ति डरा- धमकाकर विवश कर रहा है।

* क्या ? आपका कोई नाजायज फायदा उठा रहा है।

* क्या ? आप किसी गलती के कारण या लालचवश कहीं गलत लोगों के बीच फंस गए हैं।

* क्या ? आपको रक्त की आवश्यकता है।

* क्या ? आप किसी ऐसी बिमारी से ग्रस्त हैं जिसमें आपको मदद नहीं मिल पा रही है।

* क्या ? आपका कोई जबरदस्ती धर्मांतरण करवा रहा है।

* क्या ? आप किसी अलग तरह की मुसीबत में फंसे हुए हैं।

* क्या ? आपको कानूनी सलाह की आवश्यकता है।

हमारा वेदांत परिवार सभी लोगों की सहायता के लिए बना है क्योंकि हमारा सनातन " वसुधैव कुटुंबकम् " को मानता है इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हमारा वेदांत परिवार हर जरुरतमंद की सहायता करे। आइए आप भी इस परिवार का सदस्य बनें, सहयोग करें और जरुरत पड़ने पर सहायता लें। सनातन संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्र के प्रति हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम सब मिलकर नये राष्ट्र का निर्माण करें।

* क्या ? आप थोड़ी सी आर्थिक मदद कर गरीब हो जाओगे, या अगर नहीं करते तो अमीर हो जाओगे ! नहीं तो आइए मिलकर " सनातन शक्ति पात्र " को भरने की कोशिश करते हैं, जिससे कि हर जरुरतमंद की मदद हो सकें।

* हमारे पास कोई चमत्कार नहीं है ।

* हम केवल सहयोग कर सकते हैं।

* आपके साथ खड़े हो सकते हैं क्योंकि आप हमारे वेदांत परिवार के सदस्य बन चुके हैं।

 

* सनातन संस्कृति शाश्वत प्राकृतिक मार्ग है और सभी जीवों की आध्यात्मिक विरासत है।

सनातन संस्कृति के अनुसार, सनातन धर्म एक विश्व -दृष्टिकोण है जो प्रकृति में विश्वव्यापी है और जिसका पालन सभी मनुष्यों द्धारा किया जा सकता है। सनातन संस्कृति के ग्रंथों की आकाश गंगा बहुत विशाल है। सनातन संस्कृति के पवित्र ग्रंथ दुनिया के जीवित ग्रंथ हैं और सबसे प्राचीनतम सभ्यता एवं संस्कृति है। कहते है पूर्व का संबंध वैदिक काल से है और उत्तरार्द्ध वैदिक काल के बाद आया। श्रुतियों को अपौरुषेय भी कहा जाता है या जो किसी भी व्यक्ति द्धारा लिखित नहीं है। उन्हें शाश्वत माना जाता है और कहा जाता है कि वे ध्यान के समय ऋषियों के सामने प्रकट हुए थे ।

      ।। श्रीहरि ।।

* षोडश संस्कारों की आवश्यकता 

' जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।' जो जन्मता है , उसे मरना भी पड़ता है और मरने वाले का पुनर्जन्म होना भी प्रायः निश्चित है । अपने शास्त्र कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ प्राणी भगवत्कृपा से तथा अपने पुण्यपुंजों से मनुष्ययोनि प्राप्त करता है। मनुष्यशरीर प्राप्त करने पर उसके द्धारा जीवन पर्यन्त किये गए अच्छे -बुरे कर्मों के अनुसार उसे पुण्य -पाप अर्थात सुख -दु:ख आगे के जन्मो में भोगने पड़ते हैं।  " अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।"   शुभ- अशुभ कर्मों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म होता है, पापकर्म करने वालों का पशु -पक्षी कीट -पतंग और तिर्यक् योनि तथा प्रेत -पिशाचादि योनियों में जन्म होता है, पुण्य -कर्म करने वाले का मनुष्य योनि, देवयोनि आदि उच्च योनियों में जन्म होता है। मानव योनि के अतिरिक्त संसार की जितनी भी योनियां हैं, वे सब भोगयोनियां हैं, जिनमें अपने शुभ एवं अशुभ कर्मों के अनुसार पुण्य -पाप अर्थात सुख -दु:ख भोगना पड़ता है। केवल मनुष्य योनि ही ऐसी है, जिसमें जीव को अपने विवेक - बुद्धि के अनुसार शुभ -अशुभ कर्म करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है।

           अतः मनुष्य -जन्म लेकर प्राणी को अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है । कारण , इस भवाटवी में अनेक जन्मों तक भटकने के बाद अन्त में यह मानव -जीवन प्राप्त होता है , जंहा प्राणी चाहे तो सदा -सर्वदा के लिए अपना कल्याण कर सकता है अथवा भगवत्प्राप्ति कर सकता है अर्थात जन्म -मरण के बन्धन से मुक्त हो सकता है, परंतु इसके लिए अपने सनातन शास्त्रों द्धारा निर्दिष्ट जीवन -प्रक्रिया चलानी पड़ती है।

              मनुष्य की नैतिक , मानसिक , आध्यात्मिक उन्नति के लिए , इसके साथ ही बल -वीर्य , प्रज्ञा और दैवीय गुणों के प्रस्फुटन के लिए शास्त्रों द्धारा निर्दिष्ट संस्कारों से व्यक्ति को संस्कारित करने की आवश्यकता है ।

               संस्कार शब्द का अर्थ ही है , दोषों का परिमार्जन करना । जीव के दोषों और कमियों को दूरकर उसे धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थों के योग्य बनाना ही संस्कार करने का उद्देश्य है । शबरस्वामी ने संस्कार शब्द का अर्थ बताया है ' संस्कारो नाम स भवति यस्मिन् जाते पदार्थो भवति योग्य: कश्चिदर्थस्य। ' अर्थात संस्कार वह है, जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है। तन्त्रवार्तिक के अनुसार  ' योग्यतां चांदना: क्रिया: संस्कारा: इत्युच्यन्ते ।' अर्थात संस्कार वे क्रियाएं तथा रीतियां हैं , जो योग्यता प्रदान करती हैं । यह योग्यता दो प्रकार की होती है ! पापमोचन से उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से योग्यता । संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा पापों या दोषों का मार्जन होता है।

               संस्कार किस प्रकार दोषों का परिमार्जन करता है, कैसे -किस रुप में उनकी प्रक्रिया होती है - इसका विश्लेषण करना कठिन है, परंतु प्रक्रिया का विश्लेषण न भी किया जा सके, तो भी उसके परिणाम को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आमलक के चूर्ण में आमलक के रज की भावना देने से वह कई गुना शक्तिशाली बन जाता है - यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात ए, संस्कारों के प्रभाव के सम्बन्ध में यही समझना चाहिए। अदृष्ट बातों के सम्बन्ध में त्रिकालज्ञ महर्षियों के शब्द प्रमाण हैं। श्रद्धा पूर्वक उनका पालन करने से विहित फल प्राप्त किया जा सकता है। भगवान मनु का कथन है -

वैदिकै: कर्मभि: पुण्यैर्निषेकादिर्द्धिजन्मनाम्।

कार्य: शरीरसंस्कार:  पावन:  प्रेत्य  चेह  च ।।

' वेदोक्त गर्भाधानादि पुण्य कर्मों द्धारा द्धिजगणोंका शरीर - संस्कार करना चाहिए। यह इस लोक और परलोक दोनों में पवित्र करने वाला है। भारतीय सनातन धर्म की यह मान्यता है कि एक बार माता के गर्भ से जन्म होता है और दूसरा जन्म होता है उपनयन - संस्कार से। इसी आधार पर जिसके वैदिक संस्कार हुए हों, उसे द्धिज अर्थात दो बार जन्म लेने वाला कहा जाता है। ये संस्कार हिन्दू जाति की एक बड़ी विशेषता के रूप में मानें गये हैं।

संस्कार का प्रयोजन और उसके भेद -

संस्कार सामान्यतः दो प्रकार के होते हैं - एक है दोषापनयन और दूसरा है गुणाधान। कुछ विद्धानों ने इसी के तीन भेद भी बताएं हैं, पहला दोषमार्जन, दूसरा अतिशयाधान तथा तीसरा हीनांगपूर्ति। किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुई धूल आदि सामान्य मल को वस्त्र आदि से पोछना, हटाना या स्वच्छ करना मलापनयन कहलाता है फिर किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्धारा उसी दर्पण को विशेष चमत्कृत या प्रकाशमय बनाना गुणाधान कहलाता है। संसार की कोई भी जड़ या चेतन वस्तु ऐसी नहीं है, जो बिना संस्कार किए हुए मनुष्य के उपयोग में आती हो। उदाहरण के लिए हम अन्न खाते हैं, किंतु खेत में जैसा अन्न होता है, वैसा का वैसा नहीं खाते। पहले उसको रौंध कर के दाना निकाला जाता है और भूसी अलग की जाती है, उसमें जो दोष हैं उनको दूर करके, छान -बीन करके मिट्टी -कंकड सभी निकाले जाते हैं, यह दोषापनयन संस्कार है।उसे चक्की में पीस कर आटा निकाला जाता है, जो गुण उनमें नहीं थे, उन्हें लाया जाता है फिर उसमें पानी मिलाकर उसका पिण्ड बनाकर रोटी बेलकर तवेपर सेंककर खाने योग्य बनाया जाता है। ये सभी गुणाधान संस्कार हैं। कोई भी चीज संस्कार से हीन होने पर सभ्य समाज के प्रयोग लायक नहीं होती है। खेत में जिस रुप में अनाज खड़ा रहता है, उसी रूप में गाय, भैंस, घोड़ा, बछड़ा आदि उसे खा जाते हैं, लेकिन कोई मनुष्य खड़े अनाज को खेतों में ही खाने को तैयार नहीं होता। खायेगा तो लोग कहेंगे कि पशुस्वरुप है, इसीलिए संस्कार, संस्कृति और धर्म के द्धारा मानव में मानवता आती है। बिना संस्कृति और संस्कारों के मानव में मानवता नहीं आ सकती।

            उत्तम से उत्तम कोटिका हीरा खान से निकलता है, उस समय वह मिट्टी आदि अनेक दोषों से दूषित रहता है। पहले उसे सारे दोषों से मूक्त किया जाता है, फिर तराशा जाता है, तराशने के बाद उसे इच्छानुसार आकार दिया जाता है यह क्रिया गुणाधान संस्कार है। तब वह हार में पहनने लायक होता है। जैसे -जैसे उसका गुणाधान बढ़ता चला जाता है , वैसे ही मूल्य भी बढ़ता चला जाता है। संस्कारों द्धारा ही उसकी कीमत बढ़ी, संस्कार के बिना कीमत कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार संस्कार से विभूषित होने पर ही व्यक्ति का मूल्य और सम्मान बढ़ता है। इसलिए अपने यहां संस्कार का माहात्म्य है। 

              मनुष्य में मानवी शक्ति का आधान होने के लिए उसे सुसंस्कृत होना आवश्यक है, अतः उसका पूर्णतः विधिपूर्वक संस्कार सम्पन्न करना चाहिए। वास्तव में विधिपूर्वक संस्कार -साधन से दिव्यज्ञान उत्पन्न कर आत्मा को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करना ही मुख्य संस्कार है और मानव -जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है। संस्कारों से आत्मा -अन्त:करण शुद्ध होता है। संस्कार मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार -विचार और ज्ञान -विज्ञान संयुक्त करते हैं। भगवान सदाशिव देवी पार्वती माता को बतलाते हुए कहते हैं कि संस्कार के बिना शरीर शुद्ध नहीं होता और अशुद्ध व्यक्ति देवताओं एवं पित्रों के कार्य को करने का अधिकारी नहीं होता है। अतः लोक -परलोक में कल्याण की इच्छा रखने वाले विप्रादि वर्णों को अपने -अपने वर्ण के अनुसार अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक संस्कार कर्म का सम्पादन करना चाहिए। अतः संस्कारों को सम्पन्न करना नितांत अपेक्षित है। इससे शारीरिक एवं मानसिक मलों का अपाकरण होता है तथा आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति सहज होती है, जो मानव -जीवन का चरम लक्ष्य है। 

संस्कार शब्द का अर्थ --- ' संस्कार ' शब्द का अर्थ है ! संस्करण, परिष्करण, विमलीकरण तथा विशुद्धीकरण आदि। जिस प्रकार किसी मलिन वस्तुको  धो -पोंछकर शुद्ध -पवित्र बना लिया जाता है अथवा जैसे सुवर्ण को आग में तपाकर उसके मलों को दूर किया जाता है और मल के जल जाने पर सुवर्ण विशुद्धरुप में चमकने लगा है, ठीक उसी प्रकार से संस्कारों के द्धारा जीव के जन्म - जन्मान्तरों से संचित मलरुप निकृष्ट कर्म - संस्कारों का भी दूरीकरण किया जाता है। यही कारण है कि हमारे सनातन धर्म में बालक के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक और फिर बूढ़े होकर मरने तक संस्कार किये जाते हैं। 

               काशिकावृत्तिके अनुसार उत्कर्ष के आधान को संस्कार कहते हैं। ' उत्कर्षाधानं संस्कार : ।' संस्कार प्रकाश के अनुसार अतिशय गुण को संस्कार कहा जाता है। ' अतिशयविशेष: संस्कार: ।' मेदनीकोश के अनुसार संस्कार शब्द का अर्थ है - प्रतियत्न, अनुभव अथवा मानसकर्म। न्यायशास्त्र के मतानुसार गुणविशेष का नाम संस्कार है, जो तीन प्रकार का होता है - वेगाख्य संस्कार, स्थितिस्थापक संस्कार और भावनाख्य संस्कार। सारांशरुप में संस्कार की तीन प्रक्रियाएं हैं - दोषमार्जन, अतिशयाधान और हीनांगपूर्ति, जिनका व्याख्यान पूर्व में किया गया है।

            संस्कारदीपक में संस्कार को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि आत्मा या शरीर विहित क्रिया के द्धारा अतिशय आधान को संस्कार कहते हैं। गर्भाधान आदि में संस्कार पद का प्रयोग लाक्षणिक है। 

संस्कारों की संख्या - संस्कार की संख्या के विषय में मतभेद पाये जाते हैं। जातुकर्ण्य ऋषि ने ब्राह्म संस्कार की संख्या सोलह बतलायी है 

1- गर्भाधान संस्कार,  2- पुंसवन संस्कार,  3- सीमन्तोन्नयन संस्कार,  4- ( क )   जातकर्म संस्कार  एवं ( ख  )  षष्ठी महोत्सव ,  5- नामकरण संस्कार,  6- निष्क्रमण संस्कार,  7- अन्नप्राशन संस्कार,  8- चूड़ाकरण संस्कार,  9- अक्षरारम्भ संस्कार,  10- कर्णवेध संस्कार,  11- उपनयन संस्कार,  12- वेदारम्भ संस्कार,  13- समावर्तन संस्कार,  14- विवाह संस्कार,  15- ब्राह्मव्रत संस्कार,  16- अन्त्येष्टि संस्कार, 

इनमें प्रथम तीन गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन प्रसव के पूर्व के हैं, जो मुख्यतः माता -पिता द्धारा बीज एवं क्षेत्र की शुद्धि के लिए किये जाते हैं। अग्रिम छः जातकर्म से कर्णवेध तक बाल्यावस्था के, जो परिवार -परिजन के सहयोग से सम्पन्न होते हैं। अग्रिम तीन उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन विद्याध्ययन से सम्बन्ध हैं, जो मुख्यतः आचार्य के निर्देशानुसार सम्पन्न होते हैं। विवाह, वानप्रस्थ एवं संन्यास - ये तीन संस्कार तीन आश्रमों के प्रवेशद्धार हैं तथा व्यक्ति स्वयं इनका निष्पादन करता है और अन्त्येष्टि जीवन यात्रा का अन्तिम संस्कार है, जिसे पुत्र -पौत्र आदि पारिवारिक जन तथा इष्ट -मित्रों के सहयोग से किया जाता है।

             इनमें प्रथम आठ संस्कार प्रवृत्तिमार्गीय और दूसरे आठ संस्कार निवृत्तिमार्गीय हैं; शब्दों के द्धारा संस्कार का लक्ष्य जीव शरीर को ब्रह्मत्व - प्राप्ति के लिए योग्यता का निर्माण कहा है। यह ब्रह्मत्वप्राप्ति निवृत्ति की पराकाष्ठा में ही होना सम्भव है, इसलिए सोलह संस्कार जो कि प्रवृत्ति - निरोध और प्रवृत्ति के पोषक हैं, जीवात्मा की पूर्णता प्राप्ति के लिए समीचीन जान पड़ते हैं।  इसलिए द्धिजमात्र का शरीर संस्कार वेदोक्त पवित्र विधियों द्वारा अवश्य करना चाहिए ; क्योंकि ये संस्कार इस मानव लोक के साथ -साथ परलोक में भी परम पावन हैं। गर्भावस्था के आधान, पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयन तथा जन्म के पश्चात जातकर्म, चूड़ाकरण और उपनयनादि संस्कारों के समय प्रयुक्त हवनादि विधियों द्धारा जन्म दाता पिता के वीर्य एवं जन्मदात्री माता के गर्भजन्य समस्त दोषों का शमन हो जाता है तथा वेद - मंत्रों के प्रभाव से नवजात शिशु के अन्तःकरण में शुभ विचारों तथा प्रव‌त्तियों का उदय होता है। इसके साथ -साथ ही उपनयन के प्रयोजनीय वेदारम्भादि संस्कारों द्धारा विविध हवनीय विधियों से, त्रयी विधा ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद ) -के स्वाध्याय से, गृहस्थाश्रम में पुत्रोत्पादन द्धारा तीन ऋणों ( पितृ, ऋषि एवं देव ) - के अपाकरण तथा पंचमहायज्ञ एवं अग्निष्टोमादि यज्ञों के अनुष्ठान से यह शरीर ब्रह्मप्राप्ति ( सद्गति या मोक्ष ) - का अधिकारी बनाया जाता है। 

          इस प्रकार संस्कारों की सम्पन्नता से शारीरिक, मानसिक आदि सभी परिशुद्धियां होती हैं, जिनसे मनुष्य प्रेय एवं श्रेय दोनों को प्राप्त करता है। इन संस्कारों का प्रभाव चूंकि अन्तःकरण पर भी पड़ता है, अतः उत्तम संस्कारों से अन्तःकरण को उत्कृष्ट बनाना चाहिए। इसलिए जिसके सोलह संस्कार यथाविधी सम्पन्न होते हैं, वह ब्रह्मपद को प्राप्त करता है। मानव जीवन को शुद्ध करने की चरणबद्ध प्रक्रिया का नाम संस्कार है। लौकिक जीवन में मनुष्य आनन्द का संचय करते हुए च्युतिरहित चरमलक्ष्य की प्राप्ति संस्कारों से करता है। 

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